

राजस्थान राज्य में स्थित करौली राज्य के बहुत बडे ग्राम बडखेरा के जागीरदार ठा0 धर्मपाल के तीसरे पुत्र ठा0 लभाये सिंह जादौन (उर्फ लाभूराम) बडे साहसी व वीर पुरुष थे। सन् ।420 के लगभग वे अपने माता पिता व तत्कालीन करौली के महाराज श्री उदयपाल सिंह से आज्ञा लेकर अपने सैकड़ो परिवारी-जनों , साथियों एवं अनेक सैनिकों के साथ 2000 (बारह हजार) चाँदी के सिक्के लेकर अधिक उपजाऊ जमीन देखकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मैनपुरी जिले में शिकोहाबाद – नगर के पास नौसहरा ग्राम में आकर बस गये। इस ग्राम में पहिले से अनेक मेवाती रहते थे। वे बडे उपद्रवी थे। अत: ठा0 लभाये सिंह जादौन (उर्फ लाभूराम) तथा उनके साथ आये अनेक साथियों व सैनिकों ने मिलकर मेवातियों को बलपूर्वक – मारकर ग्राम नौसहरा से निकाल दिया ।
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन दिल्ली के सुल्तान के राज्य में बसे मेवातियों ने बड़ा उत्पात मचा रखा था, यहाँ तक कि इन उपद्रवी मेवातियों ने सुल्तान की सेना के हथियार व सुल्तान का खजाना भी लूट लिया था। इससे परेशान होकर दूरदर्शी सुल्तान ने बहादुर राजपूतों (क्षत्रियों) को अपनी सेना में भर्ती किया, जिसमें लभाये सिंह जादौन (उर्फ लाभूराम) सेनापति के रूप में प्रमुख थे। ठा0 लमाये सिंह जादौन व उनके साथियों व सैनिकों ने मेवातियों को मारकर भगा दिया, जिससे सुल्तान के राज्य में शान्ति स्थापित हो गयी। इस महान कार्य से प्रसन्न होकर दिल्ली के सुल्तान ने ठा0 लमाये सिंह जादौन (उर्फ लामूराम) को उनके निवास के आस-पास के इक्यावन (5) ग्रामों की जागीर देकर उन्हें सम्मानित किया। ठा0 लमाये सिंह जादौन ने लभोआ – ग्राम को बसाकर, उसे (लभौआ) को अपने राज्य (जागीर) की राजधानी बनाया और वहाँ अपने परिवार, अपने साथियों परिवारजनों तथा सैना के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।
सन् 144। से सन् 1465 तक ठा0 लभाये सिंह जादौन (उर्फ लाभूराम) ने लभोआ पर राज्य किया। सन् ।465 में राजा लभाये सिंह (उर्फ लाभूराम) जादौन की मृत्यु के बाद उनके बडे पुत्र ठा0 हरी राम सिंह लभोआ के राजा बने। इसके बाद ठा0 लभाये सिंह के वंश के राजा लभौआ राज्य की व्यवस्था को सम्हाल नहीं पाये, जिससे इस वंश के अन्तिम राजा ठा0 घनश्याम सिंह, लखनऊ के तत्कालीन नवाव को मालगुजारी के दस हजार रुपये नही दे पाये। फलस्वरुप लखनऊ के तत्कालीन नवाव ने करौली राज्य से आये एक जादौन क्षत्रिय जागीरदार ठा0 सबर सिंह से मालगुजारी के दस हजार रुपये प्राप्त करके सन् 1770 में लभोआ का राज्य ठा0 सबर सिंह के पुत्र ठा0 भगवन्त सिंह के नाम कर दिया। सन् 1770 में ठा0 भगवन्त सिंह लभोआ राज्य के राजा बने। ठा0 भगवन्त सिंह का चरित्र उच्च कोटि का था तथा वे उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ प्रबन्धक तथा गरीब प्रजा की सहायता तथा आसपास के राजाओं की सहायता करते रहते थे। अन महान गुणों के कारण सन् 1804. में एक घटना घटी, उस घटना में ग्वालियर का महाराज दौलतराव सिन्धिया एक विशाल सेना लेकर जयपुर के रास्ते दिल्ली के सुल्तान पर आक्रमण करने के लिए, जयपुर की सीमा की ओर बढ़ने लगे। दिल्ली के सुल्तान की माँग पर लखनऊ के नवाब ने अपनी बीस हजार सैना भेजी तथा लभीआ के राजा भगवन्त सिंह ने अपनी पाँच हजार सेना को दिल्ली के सुल्तान की सहायता के लिए भेजा। इन दोनों सैनाओं का नेतृत्व, लभौआ के राजा भगवन्त सिंह ने किया तथा इन दोनों सेनाओं के साथ जयपुर की सैना भी जयपुर के महाराजा ने भेज दी। इस प्रकार दिल्ली, लखनऊ, लभीआ व जयपुर के सैनाओं का युद्ध जयपुर से पहिले ही ग्वालियर की विशाल सैना से हुआ जिसमें ग्वालियर की सैना हार गई, फलस्वरुप ग्वालियर का महाराजा दौलतराव सिधियाँ, ग्वालियर वापस लौट गया।
इस खबर को सुनकर दिल्ली के सुल्तान ने अपने दरबार में ‘लखनऊ के नवाव, लभोआ के राजा भगवन्त सिंह तथा जयपुर के महाराला जगत सिंह का शाही स्वागत किया, जिसमें राजा भगवन्त सिंह को सोने की मूँठ वाली, रत्न जड़ित तलवार व कलंगी भेट की तथा राजा की उपाधि से विभूषित किया।

राजा श्री भगवन्त सिंह
यह सत्य है कि राजा भगवन्त सिंह जब भी किसी दूर के स्थान पर जाते थे और बीच में किसी स्थान में विश्राम करते थे तो वे जनहित में वहाँ कोई स्मारक जैसे पक्का तालाब, बावडी या मन्दिर वनबा देते थे। लखनऊ के नवाव ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित करने के लिए सन् 1806 में लखनऊ में एक शान्ति दरबार का आयोजन किया था, जिसके आयोजन का प्रबन्धन राजा भारामल की सिफारिस पर अनेक मुसलमान उमराव व अमीरों के होते हुए भी, लभोआ के राजा भगवन्त सिंह को सौपा गया। इस आयोजन में अवध के ताल्लुकेदारों के अतिरिक्त बाजीराव पेशवा (द्वितीय) पूना , दौलतराव सिंधिया ग्वालियर, महाराज भरतपुर, राजा साहब हाथरस, राजा अवागढ़, नवाव छतारी, राजा मडराक नवाव रामपुर, राजा मैनपुरी , राजा ओरछा, राजा मय्यर , राजा चरखारी राजा क्षतिश व राजा छतरपुर को विशेष रुप से आमन्त्रित किया गया था। इस आयोजन में माँस मदिरा की व्यवस्था नहीं की गई थी, शुद्ध मिठाई, शर्बत व रसों का आनन्द कराया गया। इस आयोजन का प्रबन्ध देखकर, सभी अतिथियों ने राजा भगवन्त सिंह की मुक्त कंठ से प्रशन्सा की। इस सुप्रबन्ध के लिए इस शान्ति दरबार में उपस्थित सभी तालुकेदारों, नवावों, राजा व महाराजाओं ने राजा भगवन्त सिंह को “सुयोग्य प्रबन्धक’ की उपाधि से सम्मानित किया। तथा लखनऊ के नवाव ने कुछ ग्राम बदायँ जिले में तथा अधिकांश ग्राम उनके लभोआ राज्य की सीमा से लगे इटावा जिले के छत्तीस ग्रामों की जागीर देकर, राजा भगवन्त सिंह को सम्मानित किया।
इस प्रकार सन् 1808 में तीसरे बनोवस्त के समय तत्कालीन मैनपुरी व इटावा जिले में यमुना नदी के किनारे तक 180 ग्राम राजा भगवन्त सिंह के राज्य में हो गये थे | इस सभी गुणों , कर्मठता, उच्च श्रेणी का प्रबन्धक होने के कारण दिल्ली के सुल्तान व अन्य राजाओं ने उनको “राजा” की उपाधि से विभूषित किया। यह सब वृतान्त मैने तत्कालीन मैनपुरी जिले के “गजैटियर’ से नोट करके लिखा है।
राजा भगवन्त सिंह ने अपने राज्य के विभिन्न भागों में अनेक सडकें, कूँआ , स्कूल तथा धर्मशालायें बनवाई। इनमें शिकोहाबाद से बटेश्वर वाली सड़क , ग्राम प्रतापपुर से ग्राम लभीआ होते हुए शिकोहाबाद तक की सड़क प्रमुख है। राजा साहब ने अपने राज्य में आने वाले यमुना नदी के किनारे वाले घाटों को पक्का कराया तथा उन घाटों के किनारे अनेक मन्दिर बनवाये। राजा भगवन्त सिंह ने अपनी राजधानी लभौआ में एक विशाल हवेली (गढ़ी/महल) बनवाया जिसके चारों कोनों पर चार बुर्ज बनवाये। इन बुर्जों पर करौली से लाकर चार तोपें रखवाई। इस तरह की हवेली (गढ़ी/महल) दिल्ली व लखनऊ के बीच आगरा के किले के अन्दर बने महल के अतिरिक्त कहीं भी नहीं थी। राजा भगवन्त सिंह ने शिकोहाबाद के पूर्व दिशा में भगवन्त वाला बाग बनवाया जो एक विशाल भवन था। उस विशाल भवन में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने वाले राजा, महाराजा ठहरते थे ।
सन् 1816 में राजा भगवन्त सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजा धर्मजीत सिंह ने लभोआ राज्य का कार्यभार सम्हाला। स्व0 राजा भगवन्त सिंह को महान वीर, प्रतापी, स्वाभिमानी, राष्ट्र भक्त, उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ व प्रबन्धक होने के कारण तथा सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास के ग्रामों के जादौन क्षत्रियों में भी इन्हीं महान गुणों के होने के कारण नागपुर के भोसले, पूना के पेशवा (मराठा) राजाओं तथा झांसी की महान राष्ट्रभक्त वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास के ग्रामों के जादौन-क्षत्रियों व लभीआ के राजा को भी,

राजा श्री धर्मजीत सिंह
अंग्रेज सरकार, अपना दुश्मन समझने लगी थी। अतः झाँसी राज्य पर 1857 में कब्जा करने के बाद, अंग्रेज सरकार के कुछ वरिष्ठ अधिकारी, अपने सैकडों बन्दूक धारी अंगरक्षकों के साथ लभोआ आकर राजा धर्मजीत सिंह से तथा सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास वाले ग्रामों के प्रमुख , प्रमुख जादौन क्षत्रियों से मिले तथा इस सभी को अंग्रेज सरकार के आधीन होने के लिए कहा तो लभोआ के राजा धर्मजीत सिंह तथा सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास के ग्रामों के जादौन क्षत्रियों ने, स्पष्ट रूप से अंग्रेजों के आधीन होने से मना कर दिया, जिससे क्रोधित होकर, अंग्रेज अधिकारी लौट गये। तत्पश्चात अंग्रेज सरकार के आदेश पर अंग्रेज सैनिक अधिकारी, लभोआ के राजा एवं सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास के ग्रामों के जादौन क्षत्रियों पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे। इस सूचना के मिलने पर सिरसागंज व शिकोहाबाद व जादौन क्षत्रिय व लभोआ के राजा धर्मजीत सिंह की एक गुप्त बैठक भगवन्त सिंह वाले बाग शिकोहाबाद में सम्पन्न हुई, जिसमें सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि हम लोग, अंग्रेज सरकार को समर्पण करके उनके आधीन नहीं बनेंगे तथा उनसे युद्ध करके अपनी तथा अपनी प्रजा की रक्षा करेंगे। इसके तुरन्त बाद जादौन क्षत्रियों ने लुहारों से बड़ी संख्याओं में तलवारें व भालों को बनवाया। तत्पश्चात शिकोहाबाद के पास दिखतौली ग्राम के पास विशाल ऊसर में अंग्रेजों से युद्ध करने पहुँच गये।
इस युद्ध में सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास के ग्रामों व ‘लभौआ राज्य के ग्रामों के करीब पाँच हजार वीरों ने तत्कालीन लभौआ के राजा धर्मजीत सिंह के नेतृत्व में भाग लिया। जादौन क्षत्रियों के लगभग पाँच सौ वीर घोडों पर सवार थे तथा शेष अन्य वीर तलवार व भाला लेकर उनके साथ पैदल चल रहे थे। अंग्रेज सैना के पास तलवारें भालों के अलावा बन्दूकें भी थी तथा एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने वाली चरखी पर रखी चार तोपें भी थी। युद्ध आरम्भ हुआ । अंग्रेजों के सैनिकों की संख्या भी लगभग पाँच हजार थी। यह भीषण युद्ध तीन दिन चला, जिसमें लभीआ के राजा धर्मजीत सिंह शहीद हो गये व उनके साथ आये सैनिकों में से दो हजार से अधिक सैनिक तथा सिरसागंज व शिकोहाबाद ग्रामों से आये दो हजार से अधिक जादौन क्षत्रिय वीर-गति को प्राप्त होकर, शहीद हो गये। अंग्रेज सैना के भी हजारों सैनिक मारे गये। इसी बीच अंग्रेज सरकार की तीन-तीन हजार सैनिकों की दो टुकडियाँ तलवारों भालों व बंदूकों तथा तोपों सहित भी आ गई। लभोआ के राजा धर्मजीत सिंह व सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास वाले ग्रामों के प्रमुख, प्रमुख वीर क्षत्रियों के शहीद हो जाने के कारण, यहाँ की सेना नेतृत्व विहीन हो गई, फलस्वरुप अंग्रेज जीत गये । यदि जादौन क्षत्रियों के पास बन्दूकें तथा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से ले जाने वाली चरखी पर रखी तोपें होती , तो अंग्रेजों को हराकर, भगाने में देर नही लगती।
इसके बाद अंग्रेजों की सेना की नई आयी हुई दो टुकडियों में से एक टुकडी लभोआ में आकर राजा धर्मजीत सिंह की हवेली (गढ़ी / महल) में घुसकर उस हवेली के बुर्जों पर रखी हुई चारो तोपों को उतार कर अपने साथ ले गये तथा हवेली के अन्दर बचे हुये हथियारों तथा विशाल खजाने को लूट लिया तथा लभौआ ग्राम के अन्य धनवान लोगों का धन भी लूट कर ले गये। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों की सैना को हवेली में घुसने से पहिले, राजा धर्मजीत सिंह के एक मात्र 2 वर्ष आयु के पुत्र कूँवर नारायण सिंह को, जो धर्मजीत सिंह के उत्तराधिकारी थे को उसकी दादी (राजमाता) ने उनकी माँ के साथ, एक सुरक्षित स्थान पर भेज दिया था। यदि कूँवर नारायण सिंह, यहाँ होते तो अंग्रेज उन्हे भी मारकर झाँसी की तरह यहाँ का सम्पूर्ण राज्य जप्त कर लेते। अत: इस परिस्थिति में अंग्रेजों ने लभोआ राज्य के 180 ग्रामों में से 175 ग्रामों को जप्त कर लिया, तथा शेष पाँच ग्राम लभौआ के उत्तराधिकारी तथा उनके परिवार के खर्चे के लिए छोड़ दिये। उल्लेखनीय है अंग्रेजों की सैना की इस टुकडी ने लभौआ राज्य के अन्य ग्रामों के धनवान व्यक्तियों का सम्पूर्ण धन लूटकर अपने साथ ले गये। बाद में शान्ति स्थापित हो जाने पर कुँवर नारायण सिंह लौट आये और लभौओआ में रहकर यहाँ के बचे पाँच ग्रामों की व्यवस्था देखने लगे।

राजा श्री नारायण सिंह
इसी प्रकार अंग्रेजों की सेना की दूसरी टुकडी ने सबसे पहिले सिरसागंज के पास बसे ग्राम नगला खुशहाली जाकर वहाँ के तत्कालीन जमीदार की गढ़ी (हवेली ) के चारों कोनों पर बने चारो बुर्जों को तोडकर, उन पर रखी चारों तोपों को उतारकर अपने साथ ले गये तथा उस गढ़ी में बचे हुए हथियारों तथा गढ़ी के अन्दर का खजाना लूट कर अपने साथ ले गये। इयी प्रकार सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास के सभी ग्रामों में जाकर उनके जमीदारों व अन्य धनवान लोगों के पास बचे हथियार तथा घरों में उपस्थित धन को भी लूट ले गये।
इसके बाद अंग्रेजों के लगभग सात हजार सैनिक तलवारों व बन्दूकों तथा युद्ध में एक स्थान से दूसरे स्थान ले जान वाली आठ तोपों को साथ लेकर मैनपुरी के राजा तेज सिंह चौहान पर आक्रमण करने के लिए मैनपुरी से पाँच किलोमीटर पहिले एक विशाल ऊसर में युद्धाभ्यास करते हुए मैनपुरी के राजा तेज सिंह चौहान के किले की ओर जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी राजा मैनपुरी भी एक बडी सेना लेकर अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए युद्ध स्थल पर आ गये। यह समाचार सुनकर सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास बसे ग्रामों के बचे हुए सैकड़ो क्षत्रिय राष्ट्र भक्त व वीर महाराजा मैनपुरी की सहायता करने के लिए मैनपुरी रवाना हो गये, जिसमें नगला खुशहाली के जमीदार परिवार के ठा0 सदासुख के पौत्र ठा0 फतेह सिंह व इस ग्राम नगला खुशहाली के अन्य अनेकों क्षत्रिय, भदान के जमीदार ठा0 लोचनसिंह चौहान व मनोहर सिंह चौहान तथा दिहहली के जमीदार ठा0 गंगा सिह वैस तथा हाथवन्त के ठा0 सुम्मेर सिंह व ठा0 प्रीतम सिंह प्रमुख थे। ये लोग अपने सैकडों साथियों के साथ महाराज तेज सिंह चौहान से मिले, वे बडे प्रसन्न हुए तथा राजा तेज सिंह चौहान ने इनको अपनी सैना में उचित स्थान प्रदान किये।
अंग्रेजों तथा राजा मैनपुरी के इस भीषण युद्ध में पहिले तो महाराजा तेज सिंह विजयी हुए लेकिन कुछ महीनों बाद कानपुर व ग्वालियर की अंग्रेजों की विशाल सेना ने गुप्त रुप से बिग्रेडियर सीटन के नेतृत्व में फिर से एकाएक मैनपुरी राज्य पर आक्रमण किया। कई दिनों तक के निरन्त्र युद्ध के बाद अन्त में अंग्रेज जीत गये। यदि मैनपुरी की सैना पर बन्दूके व तोपों होती तो अंग्रेज सैना दूसरी बार आक्रमण करने की हिम्मत न करती। उल्लेखनीय है कि सिरसागंज के ग्रमों से मैनपुरी गये क्षत्रियों में से सभी शहीद हो गये ।
अंग्रजों का विरोध करने वाले राज्य निम्न हैं ।
(1) झाँसी राज्य की महान राष्ट्रभक्त वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई तथा उनके राज्य के सभी मराठाओं व बुन्देलखण्ड के सभी क्षत्रियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया ।
(2) लभौआ राज्य के महान वीर प्रतापी व राष्ट्रभक्त राजा धर्मजीत सिंह के नेतृत्व में लभौआ राज्य के ग्रामों तथा सिरसागंज व शिकोहाबाद के पास वाले ग्रामों के जादौन क्षत्रियोंने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया ।
(3) मैनपुरी राज्य के महान राष्ट्रभक्त , प्रतापी , वीर राजा तेज सिंह चौहान ने तथा उनकी प्रजा के क्षत्रियों ने अंग्रजों के विरुद्ध युद्ध किया ।
(4) लखनऊ के तत्कालीन नवाव तथा उनके राज्य के सभी राष्ट्रभक्त व्यक्तियों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया ।
(5) पूर्वी उत्तर प्रदेश के कालाकांकर राज्य के महान देशभक्त राजा तथा उनके राज्य के क्षत्रियों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया जिसमें सभी पाँचों देश के राजा तथा हजारों क्षत्रिय वीर सैनिक शहीद हुए । फतेहपुर जिले के क्षत्रियों ने अपने जागीरदार ठा0 जोधा सिंह के नेतृत्व में अनेक अंग्रेजों को मार दिया था। बाद में अंग्रेजों ने फतेहपुर के 52 क्षत्रियों को फाँसी दी थी।
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उत्तर प्रदेश के उपरोक्त वार्णित पाँच राज्यों तथा फतेहपुर जिले के अनेक क्षत्रियों के अतिरिक्त बिहार के जगदीशपुरा राज्य के महान राष्ट्र भक्त प्रतापी राजा कुँवर सिंह, इन्दौर के भोसले, पूना के पेशवा तथा अन्य प्रदेशों के मुट्ठी भर वीरों ने अंग्रजों का विरोध किया और वे सभी लड़ते – लड़ते शहीद हो गये। लभौआ के राजा धर्मजीत सिंह के शहीद होने से तथा अंग्रेजों द्वारा 180 में से 175 ग्रामों के जप्त कर लेने पर, लभोआ राज्य केवल नाम मात्र का राज्य रह गया था, क्योंकि लभोआ राज्य में केवल पाँच ग्राम ही शेष रह गये थे।
1857 में राजा धर्मजीत सिंह के शहीद हो जाने के बाद उनके पुत्र कुँवर नारायण सिंह लभोआ राज्य के राजा बने। इनके समय में लभीआ राज्य की कोई प्रगति नहीं हुई। राजा नारायण सिंह की सन् 1874 में मृत्यु हो जाने के पश्चात्, राजा नारायण सिंह के पुत्र कूँवर लायक सिंह ने लभौआ राज्य का कार्यभार सम्भाला। उन्होने हिन्दी, अंग्रजी, संस्कृत, उर्दू व फारसी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। जमीदारों में लभौआ के राजा लाइक सिंह सबसे बडे जमीदार है तथा राजा कहलाते है। वे उत्तम कोटि के प्रबन्घक , विद्वान व उच्च्कोटि के चरित्र वाले व्यक्ति हैं। लभौआ राज्य की उन्नति के लिए राजा लायक सिंह ने व्यापार के द्वारा धन उपार्जन करके, इस पाँच ग्राम वाली रियासत को जिला का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रान्त की रियासतों में उच्च श्रेणी का बना दिया |

राजा श्री लाइक सिंह
राजा लाइक सिंह ने सिरसागंज में कपास की एक फैक्टरी स्थापित की, जो लगभग 30 वर्ष तक चली। ग्राम भावली तथा ग्राम केशरी में रंग बनाने वाली, अलग-अलग कोठियाँ बनाई, इसमें नील बनने का काम होता था तथा लभौआ में कलमीशोरा बनाने का कारखाना स्थापित किया तथा लोहे का व्यापार करने के लिए आगरा में एक बड़ा गोदाम बनाया। गलला व्यापार करने के लिए मैनपुरी व शिकोहाबाद में आड़त की दुकानें थी। देशी घी व विदेशी कपड़ा का थोक व्यापार भी करते थे व लभोआ भावली व केशरी में अफीम की खेती करवाते थे। फौज को गल्ला व देशी घी की सप्लाई करते थे। इन व्यापारों से राजा लाइक सिंह ने प्रचुर मात्रा में धनराशि इकत्रित की, जिससे उन्होंने 63 ग्रामें की जमीदारी खरीद ली। राजा लाइक सिंह ब्रह्ममूर्त में उठकर स्नान से निवृत होकर सबसे पहिले ध्यान (मैडीटेशन ) करके, उसके बाद पहिले वे प्राणायाम तथा बाद में योगासन करते थे तथा सबसे बाद में दस सेर वजन लादकर तीन मील की दौड लगाते थे। वे घोडों की देखभाल स्वंय करते थे ।
उन्होने प्रत्येक ग्राम में एक कारिन्दा को किसानों से उगाई वसूल करने के लिए रख रखा था तथा प्रत्येक ग्राम में करिन्दा को रहने के लिए एक डेरा बनवाया था। इस प्रकार 63 ग्रामों के 63 ‘कारिन्दाओं से प्राप्त उगाई के धन की लिखा-पढ़ी करने के लिए दस मुनीम रखते थे। उन्होनें अपने राज्य में अनेक सडके, कूँआ, स्कूल, धर्मशालायें, गौशालाओं व मन्दिरो को बनवाया। उन्होनें लभोआ से सीधे शिकोहाबाद से आगरा जाने वाली सड़क पर जाने के लिए पक्की सड़क बनवाई । पैत्रिक हवेली (गढी/महल ) काफी पुरानी व जर्जर हो चुकी थी अत: उन्होने ग्राम से बाहर की ओर बीस एकड जमीन में एक बडी हवेली, एक शीश महल, एक कचहरी, बडी हवेली के सामने एकबगीचा जिसमें कई कमरे व कोठियाँ बनी हुई थी, तथा एक मन्दिर बनवाया। इस पूरे 20 एकड जमीन की बाउण्ड्ी कराकर, उसके अन्दर बची जमीन में छायादार व फल देने वाले पेड़ लगवाये।
राजा लाइक सिंह के पाँच रानिया थी, वे अलग – अलग वंशों से सम्बन्धित थीं, जैसे सैंगर, जादौन, राघव, राठौर तथा झाला।
पहली रानी सैंगर वंश की थी जो खोडारती के जागीरदार की पुत्री थी, दूसरी रानी इनसे (राजा लाइक सिंह से) अन्य कुल गोत्र वाली जादौन वंश के तिलियानी के बडे जमीदार ठा0 जालिम सिंह की पुत्री थी। इन जमीदार साहब के पौत्र ठा0 सरदार सिंह अवध के कलक्टर व कमिश्नर रहे। तीसरी रानी अलीगढ़ जिले की पुन्डेर रियासत के राघव वंश के जागीरदार की पुत्री थी, इनको राजा साहब ने महारानी (पटरानी) का दर्जा प्रदान किया था। चौथी रानी उत्तर प्रदेश के एटा जिला के जैथरा नगर के पास तरिगमा – रियासत के राठौर वंश के जागीरदार की पुत्री थी। पाँचवी रानी गुजरात प्रदेश के काठियाबाद क्षेत्र के चूड़ा राज्य के झाला वंश के राजा की पुत्री थी। राजा लाइक सिंह के कोई संतान नहीं थी अतः उन्होनें अपनी सबसे छोटी रानी (जो गुजरात प्रदेश के काठियाबाद क्षेत्र के चूडा राज्य के झाला वंश के क्षत्रिय राजा की पुत्री थी) के भतीजे को गोद लिया तथा उस का नाम अर्जुन सिंह रखा।
राजा लाइक सिंह की प्रथम दो रानियाँ तो विवाह के कुछ वर्षों बाद ही स्वर्ग सिधार गई। राजा लाइक सिंह की मृत्यु के समय शेष तीन रानियाँ जीवित थी। राजा लाइक सिंह के निधन का समाचार पाकर हवेली (गढ़ी|/महल) की ऊपरी मंजिल में रह रही एक राठौर वंश की रानी साहिबा असहनीय शोक / वियोग में डूब गई। उन्होनें शीघ्र ही स्नान करके, धुले हुए कपड़े पहनकर राजा साहब के मृत शरीर के पैरों पर अपना सिर रखा, फिर उन्होनें सात बार भगवान श्रीकृष्ण का नाम लेकर, वहाँ उपस्थिति परिवारीजनों से कहा, कि मै अपने पति राजा साहब के वियोग में अपने प्राणों को त्यागकर, पतिलोक जा रही हूँ। कृपया मेरे मृत शरीर को राजा साहब के मृत शरीर के साथ रखकर, दोनों की एक ही चिता बनाकर अन्तिम संस्कार करने की कृपा करें, जिससे मै सती हो जाऊँ। यह कहकर उन्होनें अपने प्राण त्याग दिये। उपस्थिति परिवारी जनों व अन्य ग्रामवासियों ने हजारो व्यक्तियों की उपस्थिति में दोनों के मृत शरीर को एक ही चिता में रखकर उन दोनों का एक साथ अन्तिम संस्कार किया तथा लभौआ के पास बनी बाबड़ी में पहिले से बने शिव मन्दिर के पीछे उनकी (रानी सती माता की) समाधि बना दी। बाद में राजा लायक सिंह के पौत्र राजकुमार देवेन्द्र सिंह ने अपनी परम पूज्यनीया दादी जी की स्मृति में, “रानी सती माता” की समाधि के ऊपर “रानी सती माता’ की मूर्ति की स्थापना कराकर, उनकी प्राण प्रतिष्ठा कराई तथा उस समाधि पर स्थापित “रानी सती माता’ की मूर्ति के चारो ओर एक मन्दिर का निर्माण कराया। अतः अब इसे “रानी सती माता” का मन्दिर कहते है।
वर्तमान समय में जो लोग लभीआ आते-जाते हैं, वे बाबडी में बने “रानी सती माता के अन्दर बनी समाधि पर स्थापित “रानी सती माता” की मूर्ति पर अपना माथा टेककर, उनका आर्शीवाद प्राप्त करते हैं।
राजा लाइक सिंह के निधन के बाद सन् 1924 में उनके पुत्र राजा अर्जुन सिंह ने लभीआ राज्य का कार्य भार सम्हाला। सन् 1950 तक लभौआ राज्य काफी सम्पन्न था। इन्डियन ईयर बुक 1947 के अनुसार लभोआ राज्य चालीस हजार एकड में फैला था। लभोआ राज्य 1950 तक सत्तर हजार वार्षिक माल गुजारी उत्तर प्रदेश सरकार को देता था।

राजा श्री अर्जुन सिंह
राजा अर्जुन सिंह का पहिला विवाह गुजरात प्रदेश के बेला रंगपुर मोरबी राज्य के राजपरिवार मे प्रताप सिंह जडेजा की पुत्री राजकुमारी देव कंवर के साथ हुआ तथा राजा अर्जुन सिंह का दूसरा विवाह गुजरात प्रदेश में भावनगर राज्य के राज परिवार में श्री केसरी सिंह गोहिल की पुत्री राजकुमारी ब्रजकंवर के साथ सम्पन्न हुआ ।राजा अर्जुन सिंह के सबसे बडे पुत्र राजा जितेन्द्र सिंह (बडे साहब) का विवाह बांसवाड़ा महाराजा महारावल पृथ्वी सिंह जी की पुत्री राजकुमारी श्री कंवर के साथ हुआ । राजा अर्जुन सिंह के दूसरे पुत्र राजकुमार वीरेन्द्र सिंह का विवाह गुजरात प्रदेश के जामनगर जामनगर राज परिवार के श्री गोविंद सिंह की पुत्री राजकुमारी धर्मेंद्र बा के साथ हुआ । राजा अर्जुन सिंह के तीसरे पुत्र राणा राजेन्द्र सिंह (चीफ साहब) का विवाह नेपाल देश के नेपाल राज परिवार की पुत्री के साथ सम्पन्न हुआ। चौथे पुत्र राणा धर्मेन्द्र सिंह का विवाह भी विवाह नेपाल देश के नेपाल राज परिवार की पुत्री के साथ सम्पन्न हुआ। अर्जुन सिंह के पॉचवे पुत्र राणा सुरेन्द्र सिंह का विवाह मध्य प्रदेश के का विवाह महियर राज्य (मध्य प्रदेश) के महाराजा की पुत्री के साथ सम्पन्न हुआ।

राजा श्री जितेंद्र सिंह
राजा जितेंद्र सिंह जी के पुत्र राजा प्रताप सिंह जी का विवाह सहसपुर बिलारी राज्य की रानी इंद्र मोहिनी (पूर्व मंत्री उत्तर प्रदेश सरकार) और राजा मेजर जनरल मिश्री चंद की राजकुमारी रीना कुमारी (पूर्व मंत्री उत्तर प्रदेश सरकार) के साथ हुआ । राजा प्रताप सिंह जी के पुत्र युवराज दिग्विजय सिंह जी का विवाह सिरमौर स्टेट के राजा की पुत्री युवरानी माधवी कुमारी के साथ हुआ ।

राजा श्री प्रताप सिंह
राजा अर्जुन सिंह के छठे पुत्र राजकुमार देवेन्द्र सिंह का विवाह गुजरात प्रदेश में श्री देवेंद्र सिंह झाला जी का विवाह सौराष्ट्र मैं खीरसरा राज्य के राजा श्री प्रबल सिंह की पुत्री प्रीति कुमारी के साथ हुआ । राजा अर्जुन सिंह के सातवें पुत्र राणा विक्रम सिंह का विवाह मध्यम वर्ग के राजपूत परिवार में हुआ ।


राजकुमार श्री देवेंद्र सिंह झाला
राजा जितेंद्र सिंह जी की पुत्री राजकुमारी प्रभा कुमारी का विवाह लेफ्टिनेंट जनरल के एस कटोच के पुत्र कुंवर नरेंद्र सिंह कटोच के साथ हुआ । राजकुमार वीरेंद्र सिंह की इकलौती पुत्री राजकुमारी भुवनेश्वरी कुमारी का विवाह जामनगर राज परिवार में राजकुमार धर्मवीर सिंह जडेजा (चचेरे भाई क्रिकेटर अजय जडेजा) के साथ हुआ।

राजकुमार देवेंद्र सिंह झाला की पुत्री कुमारी देवयानी सिंह का विवाह दंतरामगढ़ राजस्थान राज परिवार के कुंवर साहब मयूरध्वज सिंह के साथ हुआ । राजकुमार देवेंद्र सिंह जी के पुत्र कुंवर हरेंद्र सिंह झाला का विवाह दियोदर बनासकांठा के राजा गुलाब सिंह जी की पुत्री कुमारी अर्चना सिंह जी के साथ हुआ l कुंवर हरेंद्र सिंह झाला के पुत्र कुंवर करण सिंह झाला का विवाह कुमारी आस्था के साथ हुआ । राजा अर्जुन सिंह के छः पुत्र तथा पौत्र बाहर भिन्न भिन्न शहरों में रहकर अपने निवास बनाकर, अपना निजी व्यापार करने लगे तथा एक पुत्र राणा राजेन्द्र सिंह (चीफ साहब ) लभौीआ में रहकर यहाँ के हवेलियाँ, कृषि फार्म तथा अन्य सम्पतियों की देखभाल व व्यवस्था करने लगे। राणा राजेन्द्र सिंह (चीफ साहब) के परलोक गमन के बाद इस समय उनके छोटे पुत्र राणा निर्मल सिंह लभोआ में रहकर, हवेलियों, कृषि फार्म व अन्य सम्पत्तियों के देखभाल करते हैं। राणा निर्मल सिंह का विवाह बरेली के एक चौहान वंश के राजपरिवार में सम्पन्न हुआ है।
संदर्भ –
- महान इतिहासकार श्री भगवान सिंह द्वारा लिखित क्षत्रीय वंशावणत
- महान इतिहासकार श्री ईश्वर सिंह मडाढ द्वारा लिखित राजपूत वंशावली
- करौली राज्य का इतिहास
- मैनपुरी जिले के तत्कालीन गजेटियर
- राजस्थान का इतिहास
- चंद्रवंशी राज्य लभौआ का इतिहास श्री अमर सिंह जादौन के द्वारा लिखित
- करौली राज्य के जागा 1. श्री प्रहलाद, 2. श्री राधेश्याम 3. श्री सूरज सिंह ( निवास ग्राम अकुलपुरा, पोस्ट बहादुरगढ़, करौली, सवाई माधोपुर राजस्थान)
- Indian year book 1947
- इतिहासकार श्री कृष्णा मिश्रा के द्वारा लिखित पुस्तक अठारह सौ सत्तावन
- इतिहासकार श्री रतन सिंह रावत, सहारनपुर द्वारा लिखित राजपूत क्षत्रिय वाटिका
- जन श्रुतियों को सुनकर
- लभौआ राज्य के राजकुमार श्री देवेंद्र सिंह जी ने लभौआ राज्य के स्थापित होने से वर्तमान समय तक के इतिहास का संपूर्ण विवरण तथा अपने पिता श्री राजा अर्जुन सिंह के बारे में पूरी जानकारी दी ।




















